Natasha

Add To collaction

डार्क हॉर्स

कॉल लगाते ही यही गाना बजा रायसाहब के मोबाइल पर रायसाहब ने बैड पर से तकिया ले पैर के नीचे डाला और एकदम संत के आसन में बैठ वाचना शुरू किया, "देखिए मेरा रिंगटोन माना फिल्मी है शाहरूख पर फिल्माया गया है लेकिन गीत में एक मेसेज छुपा है। ये गीत कल हो न हो, जीवन की नश्वरता को दर्शाने वाला गीत है। ये बुद्ध के क्षणभंगुरता पर आधारित गीत है। ये सिद्ध नाथ परंपराओं का गीत है। ये भारत के षड्दर्शन के कोख से निकला हुआ एक संश्लिष्ट गीत है। यह भौतिकवादी चिंतकों के चिंतन से उपजा हुआ गीत है, जो हमें आज के लिए जीने को प्रेरित करता है। देसी भाषा में अगर समझे तो ये कल करे सो आज कर वाली कहावत पर आधारित गीत है, गीत में हर घड़ी बदलते हुए जीवन के परिवर्तनशील स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। ऐसा गीत जहाँ बज जाता है लोगों को एक शिक्षा देता है आप भी अब सिविल अस्पिरेट हो चुके हैं। ऐसा ही कोई गीत बना लीजिए रिगटोन।"

"अब आप ही कौनो सेट कर दीजिए। " संतोष ने एकदम समर्पण भाव से कहा । "अच्छा हम देखते हैं कोई मीनिंगफुल गाना, जो सिविल अस्पिरेट पे फिट करेगा।

आपको कल तक देंगे खोज के " रायसाहब ने उसे भरोसा देते हुए कहा। संतोष ने तत्काल फोन को वाइब्रेशन मोड में डाल दिया। संतोष का मन रायसाहब की बौदधिकता को सलाम करना चाह रहा था। उसने सोचा कि सुबह सही ही कहा था मैंने कि अब आपकी शरण में आ गया हूँ। वह सोच रहा था कि ऐसे आदमी की संगत में रह आईएएस-आईपीएस बनना बहुत दूर नहीं पता नहीं रायसाहब अब तक क्यों नहीं हुए?" अचानक यह सवाल उसके मैन में आया, पर रायसाहब के सम्मान में तुरंत निकल भी गया। काफी देर बातचीत का सिलसिला चलता रहा। रायसाहब अपनी करामाती बात विचार से संतोष को लगातार चकित किए जा रहे थे। अब संतोष को थोड़ी भूख महसूस हुई। रायसाहब की तरफ से भूख पर कोई चर्चा परिचर्चा न छेड़ने पर संतोष ने ही पहल करना उचित समझा।

"चलिए थोड़ा बाहर चले कुछ खाकर आया जाएगा रायसाहब " संतोष ने पेट पर हाथ रखते हुए कहा।

"भूख लग गया। यहाँ रहिएगा तो हम लोगों की तरह इस पर विजय पा लीजिएगा। पढ़ाई और उसकी परिचर्चा में भूख का पता ही नहीं लगता है यहाँ लोगों को " रायसाहब ने एक छेछड़ी टाइप हँसी में दाँत निकालते हुए कहा संतोष को लगा, 'यार यहाँ भूख तो कोई मुद्दा ही नहीं है।"

रायसाहब ने संतोष की मनोदशा भाँपते हुए अपनी बात का वजन बढाते हुए कहा, "संतोष जी आदमी जैसे ही पेट का गुलाम होता है, उसके मस्तिष्क के दरवाजे बंद हो जाते हैं। विचार आने बंद हो जाते हैं। भूख का अंधा कुछ नहीं देखता और जान लीजिए एक सिविल के छातर के लिए मस्तिष्क का खुला होना एवं विचारों का आना भोजन से कई गुना ज्यादा जरूरी है। सोचिए इस दुनिया में कितने लोग होंगे जो दिन में एक रोटी के लिए तरस रहे होंगे, भूखे मर रहे होंगे, क्या हमारे जैसे लोग अपने लिए भूख पर बात कर उनके प्रति असंवेदनशीलता नहीं दिखा रहे? क्या ये अपराध नहीं है? क्या हम खुद से नजर मिला पाएंगे, अगर एक सिविल सिविंस का प्रतियोगी होकर भी हम उनके लिए कुछ न कर पाए तो क्या इस पर हमें सोचना नहीं चाहिए? बताइए संतोष जी. चुप क्यों

   0
0 Comments